Andhi Pise, Kutta Khaye – एक गांव में एक अंधी थी। उसकी दो लड़कियां थीं, जो बाल-बच्चे वाली थीं और अपनी-अपनी ससुरा में रह रही थीं। अंधी का पति मर चुका था। खेती-बाड़ी या और कोई जरिया नहीं था, जिससे वह अंधी दो जून की रोटी खा सके। वह इतनी खुद्दार थी कि दान के रूप में रोटियां खाकर वह जीन नहीं चाहती थी।
पति के मरने के थोड़े दिन बाद ही उसे लाला के यहां से गेहूं पीसने का काम मिल गया। अंधी एक दिन में दस सेर गेहूं पीस पाती थी। सुबह चार बजे चक्की चलाने बैठ जाती थी। जब सुबह अधिक हो जाती, तो घर के कामों से निपटकर आराम करती। फिर उसके बाद बैठती तो पूरे गेहूं पीसकर ही उठती थी।
गेहूं पीसते हुए लगभग शाम के पांच बज जाते थे। इसके बाद वह टोकरे में आटा लेकर लाला के यहां पहुंचती थी। उसी टोकरे में पीसने के लिए गेहूं लेकर आती थी। इस तरह उसका काम चलता रहा और अंधी को दाल-रोटी मिलती रही। कुछ दिन बाद आटे का टोकरा कुछ खाली जाने लगा। लाला कहता कि मालूम पड़ता है तू आटा निकाल लेती है।
अब टोकरा खाली आता है। अंधी कहती, “लाला में अकेली हूं। आटा किसके लिए निकालूंगी? मेरा तो इस मजदूरी में ही गुजारा हो जाता है।”
लाला को वैसे अंधी पर पूरा विश्वास था, फिर भी वह गेहूं पीसने के लिए देता रहा। अंधी पीस पीसकर आटा देती रही। एक दिन लाला अंधी के घर के पास से निकल रहा था। उसे चक्की की आवाज सुनाई पड़ी। उसका
मन हुआ कि चलो अंधी से मिलता चलूं। लाला मकान की दहलीज पर पैर रखकर आवाज देने वाला ही था कि अंधी गेहूं पीसते दिखाई दे गई। एक तरफ उसने गेहूं का टोकरा रखा था। दूसरी ओर परात में पिसा हुआ आटा रखा था। आटे की परात में कुत्ता चुपचाप आटा खा रहा था। अंधी गीत गुनगुनाते हुए गेहूं पीसती जा रही थी। लाला ने देखकर अपना माथा पीट लिया और उलटे पैर लौट आया। लाला रास्ते में सोचता जा रहा था, ‘अंधी पीसे, कुत्ता खाए’।
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