दान का हिसाब | Dan Ka Hisab Story In Hindi

Dan Ka Hisab Story In Hindi- एक था राजा। राजा जी लकदक कपड़े पहनकर यूँ तो लाखों रुपये खर्च करते रहते थे, पर दार के वक़्त उनकी मुट्ठी बन्द हो जाती थी। राजसभा में एक-से-एक नामी-दानी लोग आते रहते थे, लेकिन गरीब, दुःखी, पंडित, सरन इनमें से कोई भी नहीं आता था क्योंकि वहाँ पर गुणियों का सत्कार नहीं होता था। घेलेभर भीख भी नहीं मिलती थी।

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एक बार उस राज में अकाल पड़ गया। पूर्व सीमा के लोग बिना खाए मरने लगे। राजा के पास ख़बर आई। वे बोले, “यह तो भगवान की मार है, इसमें मेरा कोई हाथ नहीं है। लोगों ने कहा, “राजभंडार से सहायता करने का हुक्म देने की कृपा करें, जिससे हम लोग दूर से भी चावल खरीदकर अपनी जान बचा सकें।

Dan Ka Hisab Story In Hindi

राजा बोले, “आज तुम लोग अकाल से पीड़ित हो, कल पता चलेगा, कहीं भूकंप आया है। परसों सुनूँगा, कहीं के लोग बड़े ग़रीब हैं, दो वक्त की रोटी नहीं जुटती इस तरह सभी की सहायता करते-करते जब राजभंडार खत्म हो जाएगा तब खुद में ही दिवालिया हो जाऊँगा।

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यह सुनकर सभी निराश होकर लौट गए। इधर अकाल का प्रकोप फैलता ही जा रहा था। न जाने रोज कितने ही लोग भूख से मरने लगे। दूत फिर राजा के पास हाजिर हुआ। उसने राजसभा में गुहार लगाई, “दुहाई महाराज! आपसे ज़्यादा नहीं चाहते, सिर्फ दस हजार रुपये उन्हें दे दें तो वे आधा पेट खाकर भी जिन्दा रह जाएँगे।

राजा बोले, “उतने कष्ट से जीवित रहकर क्या लाभ? और दस हज़ार रुपये भी क्या तुम्ह बहुत सहज लग रहे हैं?” दूत बोला, “भगवान की कृपा से करोड़ों रुपये राजकोष में मौजूद हैं। जैसे धन का लागर हो उसमें से एक-आध लोटा ले लेने से महाराज का क्या नुकसान हो जाएगा!” राजा बोले, “पर्याप्त धन रहने पर क्या उसे दोनों हाथों से लुटा देना चाहिए? दूत ने कहा, “प्रतिदिन के इन सुगन्धित यस्त्रों, मनोरंजन और महल की सजावट में खर्च होनेवाले रुपयों में से थोड़ा-सा मिल जाने पर उन अभागों की जान बच जाएगी। यह सुनकर राजा को क्रोध आ गया।

बोले, “खुद भिखारी होकर मुझे उपदेश दे रहे हो? मेरा रुपया है, मैं चाहे उबालकर खाऊँ सारी तकलीफ़ सहकर मेरी ख़ुशी तुम अगर इसी तरह बकवास करोगे तो मुश्किल में पड़ जाओगे। इसलिए इस वक़्त तुम चुपचाप खिसक जाओ।” राजा का मिजाज देखकर दूत यहाँ से चला गया।

राजा हँसते हुए बोले, “छोटे मुँह बड़ी बात अगर दो सौ, पाँच सौ रुपये होते तो एक बार सोच भी सकता था, पहरेदारों की खुराक से दो-चार दिन काटने पर यह रक्रम पूरी भी हो सकती थी। मगर इतने से उनका पेट नहीं भरेगा, एकदम दस हज़ार हाँक बैठा। छोटे लोगों के मारे नाक में दम है।

यह सुनकर यहाँ उपस्थित लोग हाँ-हूँ कहकर रह गए। मगर मन-ही-मन उन्होंने भी सोचा “छिः छिः राजा ने यह ठीक नहीं किया।” दो दिन बाद न जाने कहाँ से एक बूढ़ा संन्यासी आकर राजसभा में हाज़िर हुआ। उसने राजा को आशीर्वाद देते हुए कहा, “दाता कर्ण महाराज! फ़क़ीर की भिक्षा पूर्ण कर दें।

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राजा बोले, “जरा पता तो चले तुम्हें क्या चाहिए? थोड़ा कम मांगने पर शायद मिल भी जाए। संन्यासी बोले, “मैं फकीर आदमी हूँ, मुझे ज्यादा देकर होगा क्या? में राजकोष से महीने भर तक बहुत मामूली भिक्षा प्रतिदिन लेना चाहता हूँ।” मेरा भिक्षा लेने का नियम इस प्रकार है, “मैं पहले दिन जो लेता हूँ, दूसरे दिन उसका दुगुना, फिर तीसरे दिन उसका दुगुना, फिर चौथे दिन तीसरे दिन का दुगुना। इसी तरह से प्रतिदिन दुगुना लेता जाता हूँ।

भिक्षा लेने का मेरा यही तरीक़ा है। राजा बोले, “यह तो समझ गया। मगर पहले दिन कितना लेंगे, यही असली बात है। दो-चार रुपयों से पेट भर जाए तो अच्छी बात है, मगर एकदम से बीस-पचास हाँकने लगें, तब तो काफ़ी बड़ी रक़म हो जाएगी। संन्यासी हँसते हुए बोले, “महाराज फ़क़ीर भला लोभी होता है? मैं तो बीस-पचास की कौन कहे, दो-चार रुपये भी नहीं माँगता आज मुझे एक पैसा दीजिए, फिर उनतीस दिन तक दुगुने करके देते रहने का हुक्म दीजिए।

यह सुनकर राजा, मन्त्री, मुसाहिब सभी की जान में जान आई। तुरन्त हुक्म दे दिया कि संन्यासी ठाकुर के हिसाब के अनुसार एक महीने तक राजकोष से उन्हें भिक्षा दी जाती रहे। संन्यासी महाराज की जय-जयकार करते हुए घर लौटे। तरह दो दिन बीते दस दिन बीते दो सप्ताह तक भिक्षा देने के बाद भंडारी ने हिसाब करके देखा राजा के आदेशानुसार राज भंडारी प्रतिदिन हिसाव करके संन्यासी को मिक्षा देने लगे।

इस कि भीख में काफ़ी दान निकला जा रहा है। यह देखकर उन्हें उलझन महसूस होने लगी। महाराज तो कभी किसी को इतना दान नहीं देते थे। उसने यह बात मन्त्री को बताई। मन्त्री बोले, “वाकई, यह बात तो पहले ध्यान में ही नहीं आई थी। मगर अब कोई उपाय भी नहीं है। महाराज का हुक्म बदला नहीं जा सकता।” इसके बाद फिर कुछ दिन बीते भंडारी फिर हड़बड़ाता हुआ मन्त्री के पास पूरा हिसाब | लेकर आ गया। हिसाब देखकर मन्त्री का चेहरा उतर गया।

ये अपना पसीना पोंछकर, सिर खुजलाकर, दाढ़ी में हाथ फेरते हुए बोले, “यह क्या कह रहे हो अभी इतना? तो फिर महीने के अन्त में कितने रुपये होंगे? भंडारी बोला, “जी, पूरा हिसाब तो नहीं किया है।” मन्त्री बोले, “भागकर जाओ, अभी खताची से पूरा हिसाब निकलवाकर से आओ।” भंडारी हाँफता हुआ भागा, “मन्त्री महाशय अपने माथे पर बर्फ की पट्टी लगाकर तेजी से पंखा झलवाने लगे।

आधा घंटा भी नहीं हुआ था कि भंडारी काँपते हुए पूरा हिसाब लेकर आ गया। मन्त्री ने पूछा, “कुल मिलाकर कितना हुआ। भंडारी ने हाथ जोड़कर कहा, “जी, एक करोड़ सड़सठ लाख, सतहत्तर हजार दो सौ पन्द्रह रुपये, पन्द्रह आने और तीन पैसे।” मन्त्री गुस्से में बोले, “मजाक कर रहे हो? भंडारी ने कहा, “मजान क्यों करूंगा? आप ही हिसाब देख लीजिए।” यह कहकर उसने हिसाब का कागज मन्त्री जी को दे दिया। मन्त्री महाशय हिसाब देखकर ऑंखें उलटकर मूर्च्छित होने को हुए। सभी उन्हें संभालकर बड़ी मुश्किलों से राजा के पास ले आए।

राजा ने पूछा, “बात क्या है?” मन्त्री बोले, “महाराज, राजकोष से करीब दो करोड़ रुपयों का नुकसान होने जा रहा है। राजा ने पूछा, “यह कैसे?” मन्त्री बोले, “महाराज, संन्यासी ठाकुर को आपने भिक्षा देने का हुक्म दिया है। मगर अब देख रहा हूँ उन्होंने इस तरह राजकोष से करीब दो करोड़ रुपये झटकने का उपाय कर लिया है।” राजा बोले, “इतने रुपये देने का हुक्म तो नहीं हुआ था। तब इस तरह का हुक्म का क्यों किया? भंडारी को बुलाओ।

मन्त्री ने कहा, “जी सब कुछ आपके हुक्म के अनुसार ही हुआ है। आप खुद ही दान का हिसाब देख लीजिए।” राजा ने उसे एक बार देखा, दो वार देखा, इसके बाद वे तड़पते हुए बेहोश हो गए। काफी कोशिशों के बाद उनके होश में आ जाने पर लोग संन्यासी ठाकुर को बुलाने दौड़े। सारा हिसाब इस प्रकार था

पहला दिन1 पैसा16वाँ दिन512 रुपये
दूसरा दिन2 पैसे17वाँ दिन1024 रुपये
तीसरा दिन1 आना18वाँ दिन2048 रुपये
चौथा दिन2 आने19वाँ दिन4096 रुपये
पाँचवाँ दिन4 आने20वाँ दिन8192 रुपये
छठा दिन8 आने21वाँ दिन16384 रुपये
सातवाँ दिन1 रूपया22वाँ दिन32768 रुपये
आठवाँ दिन2 रुपये23वाँ दिन65536 रुपये
नवाँ दिन4 रुपये24वाँ दिन131072 रुपये
दसवाँ दिन8 रुपये25वाँ दिन262144 रुपये
11 वाँ दिन18 रुपये26वाँ दिन524288 रुपये
12वाँ दिन32 रुपये27वाँ दिन1048576 रुपये
13वाँ दिन64 रुपये28वाँ दिन2097152 रुपये
14वाँ दिन128 रुपये29वाँ दिन4194304 रुपये
15वाँ दिन256 रुपये30वाँ दिन8388608 रुपये 1,67,77,215 रुप
15 आने, 3 पैसे

संन्यासी के आते ही राजा रोते हुए उनके पैरों पर गिर पड़े। बोले, “दुहाई है ठाकुर, मुझे इस तरह जान-माल से मत मारिए। जैसे भी हो एक समझौता करके मुझे वचन से मुक्त कर दीजिए।” संन्यासी ठाकुर गम्भीर होकर बोले, “इस राज्य में लोग अकाल से मर रहे हैं, उनके लिए पचास हजार रुपये चाहिए।

वह रुपया नकद मिलते ही मैं समझँगा मुझे मेरी भिक्षा मिल गई है। ” राजा ने कहा, “उस दिन एक आदमी ने मुझसे कहा था कि दस हज़ार रुपये ही बहुत होंगे।” संन्यासी बोले, “मगर आज मैं कहता हूँ कि पचास हजार से एक पैसा कम नहीं लूंगा।”

राजा गिड़गिड़ाए, मन्त्री गिड़गिड़ाए, वजीर नाजिर सभी गिड़गिड़ाए। आँसुओं की वहाँ बाढ़ आ गई, मगर संन्यासी अपने वचन से जरा भी नहीं डिगे। आखिरकार लाचार होकर राजकोष से नकद पचास हज़ार रुपये संन्यासी को गिनकर देने के बाद ही राजा की जान बची।

पूरे देश में ख़बर फैल गई कि अकाल के कारण राजकोष से पचास हजार रुपये राहत में दिए गए हैं। सभी ने कहा, “हमारे महाराज कर्ण जैसे ही दानी हैं।

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